“आजकल वो मुलाक़ात नहीं होती”
संश्रुति साहू
कई दिनों से या शायद कई सालों से हम मिले नहीं…यूं नहीं कि फुरसत नही, बस अब वक्त फिसल जाता है दर्मीयां और बेमतलब ही मुलाक़ात होती नहीं..काफी अरसा हुआ हमें एक दूसरे से मिले, इत्मीनान से एक दूसरे का चेहरा पढ़े हुए…ये जाने हुए, कि आंखों से आखरी कतरा आंसू का कितने वक्त पहले बहा था और होंठो से हंसी कितने पहर पह्ले मिलने आयी थी..जो शरारत सूझी थी वो ज़हन के कौन से इलाके से आयी थी और मन का डर गर था भी तो कितना गहरा था… पहले तो ये हम मिलते ही भांप लेते थे..अल्फ़ाज़ बहुत देर लगाते थे मिलने आने में… खैर वो उन दिनो की बात थी, ये दौर आज का है…
सब कुछ वही है मगर वैसा कुछ भी नहीं.. क्या बदला शायद कुछ भी नही पर शायद सब कुछ.. इन दिनों वैसी बात होती भी नहीं जैसे तुम लोगों से पिछले ज़मानों में हुआ करती थी..क्या बदला या यूं पूछूं कौन बदला तुम या मैं..शायद कोई नहीं बदला, लगता है बस वक्त ने करवट ली है…वो ख्याल अब आते नहीं जैसे हम मिलते तो आया करते थे… या बिन मिले ही कभी कभी पढ़ लेते थे दिल की किताब… अब ज़िन्दगी आसां तो हो गई है मगर बेहतर का पता नहीं…
वो लम्हे अक़्सर गुदगुदा जाते हैं मुझे आज भी इस दौड़ती भागती हांफती तंग लम्हों के फेरों में जब ख़ुद से ख़ुद की मुलाक़ात होनी भी मुश्किल लगती है…जब कोई ना होता था साथ देने को तो यही मेरा अज़ीज था, जो मेरी रोज़ कि लड़ाई में मेरी बटालियन बना करता था…मेरे ख़्याल मेरे लफ़्ज़ों में ढ़ल कर काग़ज़ और सियाही से दोस्ती रखते थे… जी हां वो वक्त और ही था कुछ जब हम दोस्त तमाम रोज़ाना मिला करते थे..मेरे खयालों की दोस्ती जब हमनवाई में बदल गई इसकी खबर ख़ुद मुझे भी नहीं…
खयाल और जज़्बात तो अब भी हैं साथ मेरे, मगर अब उनका लिबास बदल गया है..कभी जो डायरी के पन्नों में जज़्बात बह जाया करते थे अब वो महज़ किसी “ऐप” के दायरे में सिमट कर रह जाते हैं..अपनी ही डायरी से मिलना बड़ी बात हुआ करती थी जब रात के हौले हौले जलते उजालों मे बिन बात सबसे छुपकर हम मुलाक़ात चुराया करते थे…अब किसी के होने ना होने का मोहताज नहीं कोई उंगलियों के देहलीज़ पर अब हम जज़्बात बुना करते हैं…कोई खयाल जब काग़ज़ पर अपना आशियां बसाता था तब सौ मर्तबा पूछताछ के कठघरे में खुद को पाता था…अब बेहया हो काग़ज़ पर नाचते हैं जज़्बात लेकिन अब भी रह्ते है मायने के तलाश मे… उंगलियों के इशारों पर बेहेकते हैं अब जज़्बात कहां अब रहे गुज़रे ज़माने जैसे हालात..वो सुकूं और तस्सल्ली का अब भी है मुझे इंतजार जैसे डायरी से रुबरु होते ही वो मुझे मिला करते थे…. काग़ज़ पर स्याही जैसे ही करवट लेते लफ्ज़ मनमौजी हो जाते…जैसे ही उनका कारवां काग़ज़ पर ढ़लता दबे जज़्बात हालात से लड़ने कि हिम्मत जुटाते…अचानक अंदर बेबाक अदा लहराने लगती… मानो डायरी से मिलते ही उम्मीद चेहचहाती… जाने दिल के किन किन कोनो से आते मिलने मुझ से… मुझे ही खबर न होती कई बार और जैसे मेरे मन का हाल मुझे ही बताते
कितनी राहत थी उन दिनों उन मुलाकातों में जब दिल में भरा सारा गुब्बार निकल आता बिना कुछ कहे बोले…लफ्ज़ होते तो थे मगर आवाज़ नहीं..मै जानती नही थी शायद कि क्या कहना चाहती हूं और मानो मेरी डायरी को पहले ही पता होता कि लफ़्ज़ की पालकी में कौनसे मेहमां आने वाले हैं… यूं था रिश्ता कुछ लफ्ज़ो और कागज़ का बिन शर्तो क रिश्ता हमेशा वाला बिन मेहनत से निभाने वाला रिश्ता
आज उन पुराने पन्नों को जब पलटकर देखूं तो बेशक इक नई दुनिया को टटोलती हूं जो इस भागती दिन रात मे कहीं पिछे छूट गया है…उस ज़माने से गुज़री तो हूं मैं मगर जिसे तोहफ़ा बनाकर सहेजा हो मैंने जैसे… डायरी के पन्नों का रंग उड़ गया है यकीनन मगर उन लम्हों की रंगीनियत आज भी यूंही बरक़रार है मेरे दिल के हर कोने में…वो लम्हें जो बड़ी सादगी में सजे थे ज़िंदगी मे उनकी मासूमियत आज भी वैसी ही अनछुई है आज के दौर के चकाचौंध से.. दबे पांव आकर जाने कैसे अपनेपन और जादू की दुनिया में ले जाते वो लम्हें… बिन कहे बिन मांगे कुछ बस हिम्मत का तोह्फा दे जाते वो लम्हे
सच कहूं तो काग़ज़ और जज्बातों के रूमानी किस्से बुनते थे वो पल को डायरी संग बीता करते थे… कॉफ़ी के प्याले और खिड़की से झांकता चांद..ये भी आ जाते कभी कभी गुफ्तगू के सिक्के बटोरने… ख़ुद से इश्क़ की दास्तां बयान करते वो लम्हें आज भी…और आज ये सब अचानक क्यों कैसे यही ना ?? भागती हुई ज़िंदगी मे बेवजह रुकने का सबब कैसे ?? यादो की संदूक आज इतने बरस बाद खुली कैसे, यही ना ??
आज कई बरसों बाद अचानक यूं ही घर के एक कोने में एक डायरी और कलम को धूल खाते देखा जब…अतीत के पन्नों से धूल छटी और अंदर दबे किसी दुनिया की सैर कराने आ गए मुझे मेरे ही अंदर खो चुके वो लम्हें जो कभी ज़िंदगी से भी अज़ीज़ हुआ करते थे, आज मिले मुझ से कईं सालों बाद ठीक वैसे ही मुलाकात हुई उनसे जैसे वो पहले मिला करते थे…मुझ में पहली सी जान फूंकने…मुझे नायाब मायने और बिछड़े लम्हों का तोहफ़ा देने… सच बहुत सुकून देता है भुले हुए मैं से अचानक ज़िंदगी के किसी राह पर यू ही मिल जाना, जैसे पुरानी नही अपनी नयी ज़िंदगी से मिलना हुआ हो जैसे…
कभी कभी यूं भी मिलने आती है ज़िन्दगी.. लम्हों में लिपट कर अचानक बेबाक बिंदास बिन दस्तक !!!