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वक्त

वही हूं मैं, तब भी...अब भी.. लेखिका- संश्रुति साहू

वक्त

वही हूं मैं – तब भी… अब भी

दौड़ अंधी है कहां किस ओर कब तक कितना इन सब का कोई जवाब नहीं है..पर हां दौड़े जा रहे हैं सभी और रुकेंगे शायद तब ही जब किस्मत का कोई थपेड़ा पड़े..बड़ी बड़ी खुशियों को गवांकर छोटे छोटे मकाम हासिल कर ख़ुश होने वाले इंसान..बहुत कुछ लुटा कर बेमानी दौलत शोहरत बटोर कर ख़ुद पर नाज़ करता इंसान..क्या फायदा क्या नुक़सान इस हेर फेर में ये शायद ही कोई सोचता होगा हम में से..और सही भी। तो है सोचें भी क्यों सांसों का कारवां चल ही तो रहा है…जल्दी क्या है जीने की अभी ज़िन्दगी काफ़ी बाक़ी है..शायद यही सोच मान कर हम ज़िन्दगी को फिसलते देखते हैं और उसका मलाल तब करते हैं हम जब हम रहते ही नहीं…ख़ुद को हम कितना भी बलवान मां। लेहुम भूल जाते हैं कि हमसे भी ऊपर कोई है जो शतरंज के पियादों जैसा हमसे खेल रहा है कोई है जो हमारे सांसों का हिसाब रख रहा है…हम चाहे उसे फ़िज़ूल बरबाद कर दें या सोच समझ के आग में जलते रहें सिर्फ़ उसे पता है अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाना और हमें याद दिलाना कि अगर वो पहलू में हैं तो फर्श पर भी अर्श सा सुकून है और जब वो हो नासाज़ तो राजा भी रंक होता है…जी हां मैं वही हूं जो इंसान के काबू से बाहर हूं और यकीनन हमेशा ही रहूंगा..जी हां नाम मेरा वक्त है.. सबके हिस्से एक सा बटा हूं पर एक सा किसी के लिए नहीं…उसी पल किसीको उसका सबकुछ दे दूं तो उसी पल किसी का सबकुछ छीन लूं मैं…वक्त हूं मैं वक्त पर जो ना समझ पाए मुझे वक्त बेवक्त उसे सताता रहता हूं मैं..

यूं तो एक दिन में कुछ बदलता नहीं पर बीते हुए सालों के गलियारों से गुज़रे कोई तो ये एहसास होता है कि कुछ भी उस वक्त जैसा अब रहा नहीं. तिनका तिनका बदलता है वक्त का रूप जो हमारी ज़िन्दगी का रुख़ भी बदल कर रख देता है… मेहेज़ लफ़्ज़ों में बातों का सबूत मिले नहीं शायद पर अगर लम्हों का पिटारा खोल कर देखा जाए तो शायद यकीन हो..

कभी जो साथ दौड़ते थे दो दोस्त, आज वो अपनी अपनी दौड़ में एक दूसरे का साथ ढूंढ़ रहे हैं… कभी वॉट्सएप के पिंग में तो कभी किसी पब के शोर में तलाशते एक दूसरे को…पास पास तो है मगर साथ का इंतज़ार करते आजकल…अलग अलग किस्से और तजुर्बों से घिरे वो दोस्त आजकल वजह तलाशते हैं मुलाक़ात के लिए जो पहले बेवजह दिन रात साथ बिताया करते थे|

बुशर्ट निक्कर में कड़क धूप कि अगन में जो खेला करते थे बेसुध होकर, आज ऑफिस के केबिन कि ए. सी. में अपने दिन झुलसा रहें हैं…

गर्मियों की वो रातें आज भी दोनों को सताती है जब दोनों दोस्त कुल्फीवाले ठेले कि घंटी सुनकर अपने अपने घरों से बाहर निकल आया करते थे जैसे रोज़ एक कुल्फी खाने का वादा हो एक दूसरे से…आज महंगे महंगे पकवानों में भी वो स्वाद नहीं मिलता जो सड़क किनारे सजे ठेलों और दुकानों में चिल्लर के भाव मिला करता था…

रंगबिरंगे पन्नियों में जमे “पेप्सी” चूसने का तो मज़ा पूछिए ही मत… मज़ा दोगुना हो जाता जब अपनी अपनी जीभ बाहर निकाल उसका रंग देखा करते और दोनों एक दूसरे को चिढ़ाया करते…कोई खास वादे नहीं थे बीते बचपन के दौर में…बस इन्हीं लम्हों के बदौलत दोस्ती पक्की हो जाती थी…

कभी जो डांट पड़ने पर अपने घर से निकल, दूजे के घर पनाह ले लिया करते थे, आज बॉस कि डांट सुन कर मजबूर हैं… कहीं भागने का अब रास्ता तो मिलता नहीं सो अपने आप में सिमटकर रह जाते हैं…

कभी जो किसीके घर खीर बनी हो तो आखरी कटोरी खीर की लड़ाई का फैसला, मासूमियत के हवाले होता था… अब फैंसी सजीले मिठाईयों में भी वो ज़ायका नहीं जो उस आखरी कटोरे में हुआ करता था…

समुंदर किनारे रेत मिट्टी का महल बनाकर जो सूकूं मिलता था, वो इत्मीनान आज ईंट पत्थरों के मकां से गायब है…जो खुशियां गूंजती थी खुले आसमानों में आज बंद कमरों में सिसक कर रह जाती है…

शरबत के गिलास को बड़ों के लिहाज़ में पकड़कर ख़ुद बड़ों जैसी एक्टिंग करने का भी अलग शौक और मज़ा था… जल्द ही बड़े हो जाने कि चाह कब इतनी जल्दी कुबूल होगी इसका अंदाज़ा कभी ना था दोनों को…अब मैखाने में बैठ शराब घटकने से भी वो प्यास नहीं बुझती तो तब बुझा करती थी… क्या बदला दरमियान..वैसे तो कुछ भी नहीं शायद पर वैसे शायद वक्त बदल गया है|

इन्हीं कुछ लम्हों से:

याद दिलाने आया हूं

जो समझते हैं ख़ुद को ख़ुदा

उनका वेहेम तोड़ने आया हूं

क्या कहूं अब

कौन हूं मैं

हलचल मचाता हरदम

फिरभी मौन हूं मैं

मैंने देखा है इन्हें

क़रीब से दूर होते हुए

हमसफ़र से

अजनबी बनते हुए

मैं वक्त हूं

निराकार हूं

सबको बदलने की

ताक़त रखता हूं

जो करे गुरूर ख़ुद पर

उसे कुचलने कि नीयत रखता हूं

वक्त वक्त की बात है

पल भर की हेरा फेरी है

आज नाराज़ हूं अगर, तो कल

अज़ीज होने का हुनर रखता हूं

मैं कहीं ठहरता नहीं

कोई मेरा ठिकाना नहीं

चलता रहता हूं और

लोगों को चलना सिखाता हूं

रुके चाहे कोई कहीं

में अपनी धुन में गुज़र जाता हूं

मैं दोस्त नहीं

दुश्मन भी नहीं

अज़ीज किसिका नहीं

और पराया भी नहीं

हूं मैं “reserved”

तेरे खातिर

वहम ऐसा कभी

पालना नहीं

मेरे वजूद से कोई गैर नहीं

मौजूद सबके दरमियान हूं मगर

अपनी कीमत वक्त बेवक्त

सबको बताता रहता हूं

मैं वक्त हूं

किसी के हाथ आता नहीं

मेरे हाथ से बचके

कोई निकल पाता नहीं

भूल जाते हैं जो

मेरे कहर को

रह रह कर उन्हें अपनी

फितरत याद दिलाता रहता हूं|

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