‘गड़बड़-तंत्र’ दिवस ! देखते देखते हाथ से चली गई दिल्ली
विशेष : संपादक, डॉ सौरभ माथुर
आज जो भी तस्वीरें पूरे देश ने देखीं वो बेहद डरा देने वाली थी , मानों दिल्ली में रहना अब खतरे से खाली नहीं और हर दिल्लीवासी खतरों का खिलाडी हो गया है।
तस्वीरें डरावनी इसलिए नहीं की दिल्ली में पहली बार हिंसा हुई बल्कि इसलिए की इतने बड़े स्तर पर , इतने सुनियोजित ढंग से और महीनों की तैयारी के साथ हुई जहाँ पुलिस मजबूर होकर पीटती नज़र आई और एक बार फिर राजनैतिक स्वार्थ के लिए ज़िम्मेदारों ने देश जलने दिया और एक बार फिर ये प्रमाणित हो गया की देश के किसी भी तपके , संगठन या समुदाय के लोग इकठ्ठा होकर जो चाहे वो कर सकतें हैं , यहाँ तक की देश की राजधानी पर कब्ज़ा कर सकते हैं ,तोड़ फोड़ कर सकते हैं या फिर उसे जला सकते हैं ।
याद कीजिये गुर्जर आंदोलन, जब सिर्फ दिल्ली ही नहीं पूरा देश जला था, रेल की पटरियां देश की पटरी के साथ उखड दी गयी थी , सवाल तब भी यही था और आज भी यही है की देश के किसी भी तपके या समाज के लोग तब भी क्या सिर्फ ‘ नागरिक ‘ ही कहलहाएंगे जब वो हज़ारों लाखों की तादाद में इकठ्ठा होकर पूरे देश की व्यवस्था को तोड़ मरोड़ देंगे और सभी संसाधनों और ताकत के बावजूद भी मजबूरी में पुलिस व प्रशासन सिर्फ देखता रहेगा, पिटाई खाता रहेगा ?
क्या नया भारत घर में घुसके मारेगा और घर में आकर खुद पिटेगा ? आज दिल्ली में रह रहे हर उस व्यक्ति को डर लगा होगा जिसने ट्रेक्टर रैली के नाम पर दिल्ली की हर गली कूचे में कब्ज़ा करने वाले गुंडों को पुलिस पर ट्रेक्टर चलाते , तलवार चलते और लाल किले पर झंडा फहराते हुए देखा होगा , उन्हें लगा होगा की कहीं ये भीड़ उनके घर में भी न घुस जाए।
इसमें कोई दो राय है ही नहीं की ट्रेक्टर रैली के नाम पर सुनियोजित ढंग से देश की राजधानी पर हमला किया , इसे समर्थन देने वाले कई पप्पुओं को ये नहीं पता की ऐसा करके वो अपना ही हाथ जला रहे हैं क्यूंकि आज की इस हरकत से इस आंदोलन के पीछे छिपा असली भद्दा मकसद पूरे देश के सामने आ गया , अब केंद्र सरकार को भी खुली छूट मिल गई इसे बलपूर्वक ख़त्म करने की लेकिन क्या ऐसे आंदोलनों को इतनी छूट देना वाजिब होता है ? चाहे पार्टी या केंद्र में सरकार किसी की भी हो , क्या देश की राजधानी या अन्य शहर किसी के बाप का माल है जिसे कोई भी आकर आग लगा देगा ? जी नहीं , ये उन करोड़ों टैक्स पेयरों की मेहनत की कमाई से बना देश है जो अपना घर चलाने से पहले अपनी जेब से सरकार को टैक्स भरते हैं , महज़ सिर्फ इसलिए की किसी पार्टी का राजनैतिक एजेंडा पिट जाएगा सा सफल हो जाएगा इसके लिए किसी भी संगठन को पहले ही दिन से ऐसी छूट देने का किसी को अधिकार नहीं है की जिसे आगा चलकर संभाला न जा सके.
जिस 26 जनवरी में दिल्ली में घुसने वाले हर वाहन की जांच की जाती है वहां राजनैतिक दबाव में आकर कैसे ट्रेक्टर रैली की अनुमति देदी जबकि मालूम था की पिछले कई दिनों से लाखों ट्रेक्टर राजधानी के पास पहुँच चुके हैं , खुद को किसान कहने वाले लाखों आदमी ने शहर को घेर रखा है ? क्या इतने वरिष्ठ , होशियार और पूरी तकनीक से लेस आईएएस , आईपीएस इत्यादि लोगों को अंदाज़ा नहीं था की क्या हो सकता है ? क्यों टिकरी , गाज़ीपुर इत्यादि जगह पर सिर्फ पांच सौ जवानों की कम्पनिया तैनात थी ? बैकअप फाॅर्स आने में पूरा दिन कैसे निकल गया ? अगर ITO चौराहे पर लहराते ट्रैक्टरों के पहिये के नीचे पुलिस वाले कुचले जाते तो ? यदि लाखों लोग शहर में, घरों में लूटपाट मचा देते तो ? यदि इनके हाथों में तलवार की जगह बंदूकें होतीं तो ?
ये सभी सवाल हर उस इंसान के मन में आए होंगे जिसने ये भयानक मंज़र देखा या सुना। ये हिंदुस्तान है साहब, यहाँ हर किसी को किसी न किसी कानून से दिक्कत है , आंदोलन होते रहेंगे और यदि कण्ट्रोल नहीं होंगे तो ऐसी घटनाएं होती रहेंगी और तस्वीरें भयानक होती चली जाएंगी, ऐसे लोगो को प्रोत्साहन मिलेगा की इकट्ठे होकर चलो, कुछ नहीं होता !
ऐसे मामलों पर ये सोच छोड़नी पड़ेगी की यदि सख्ती की तो विपक्ष क्या बोलेगा, ऐसे या वैसे इलज़ाम लगेंगे , अरे ये तो हर बात में बोलेंगे, इलज़ाम लगाएंगे , इनके मुँह पर कोई लगाम नहीं है , आज सिद्धू ने ही उग्र प्रदर्शन के बाद ट्वीट कर दिया की आज की घटना से सबक नहीं लिए तो ऐसी घटनाएं दोबारा होंगी ! बताइये , इन गुंडों से निपटने के लिए दिल्ली पुलिस ने इतना सय्यम रखा या यूँ कहें की मजबूरन रखना पड़ा वार्ना मजाल है किसी की जो यूँ लाल किले पर कब्ज़ा जमा ले ?
महात्मा गांधी के देश में ये कैसी सोच पनप गई है की हिंसा के बिना कोई नहीं सुनेगा ? अरे , जब पूरा देश अहिंसा के बल पर आज़ाद हो गया तब क्या अहिंसा से वाजिब मांगे नहीं मनवाई जा सकतीं ?
आज अपने घरों पर बैठे वाट्सएप्प और फेसबुक के माध्यम से कई बुद्धिजीवी उग्र ‘ किसानों ‘ पर हो रहे लाठी चार्ज का विरोध कर रहे थे , कह रहे थे की देश के अन्नदाता को पीटा जा रहा है , ज़रा वो बताएं की जिस स्तिथि में ट्रेक्टर पर सवार होकर , हाथों में डंडे तलवारें लेखर , डिवाइडर तोड़ कर , बैरिकेड गिराकर, पुलिस को पीट कर जब इन्ही लोगों के सामने इन बुद्धिजीवियों में से कोई आ जाता तो इनकी पतलून गीली हो जाती , गीली !
खैर , अब समय है ऐसी घटनाओं पर जीरो टॉलरेंस निति का , चाहे कोई भी पार्टी हो, किसी की भी सरकार हो , आंदोलन के नाम पर ज़रा सी भी हिंसा करने वालों पर ऐसी सख्ती को अगली बात हिम्मत नहीं पड़े किसी की भी अराजकता फ़ैलाने की क्यूंकि देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी है अराजकता की नहीं !
Twitter @saurabhprasoon