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‘चाक़ूबाज़ी’ – इनसाइड स्टोरी

डॉ सौरभ माथुर

प्रस्तावना – इस लेख का उद्देश्य पुलिस, प्रशासन या सम्बंधित कानून अथवा विभागों के चाकूबाजी जैसे घिनौने अपराधों को रोकने के  प्रयासों की तुलना या आलोचना करना नहीं है अपितु देश भर में हो रहे इस घिनौने अपराध की तय तक जाकर इसे समझना व इसे रोकने हेतु हुए सफल प्रयोगों  की जानकारी जुटाना  है जिससे पुलिस के साथ जनता भी समझे की इस दर्दनाक अपराध को रोकने के लिए कैसे इसकी जड़ों को काटना ज़रूरी है।  

न 2015 में तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान  शहर में हो रही बेतहाशा चाक़ूबाज़ी से चितिंत होकर इंदौर पुलिस के साथ विशेष बैठक लेने आये थे , तब हुई उस बैठक में चाक़ूबाज़ी  को रोकने का  एक  ब्लूप्रिंट बनाया गया जिसमें  कुछ प्रयोग भी किये जाने थे , उस ब्लूप्रिंट को बहुत सावधानी पूर्वक वरिष्ठ अधिकारीयों , अपराध विशेषज्ञों , दूसरे प्रदेशों   में हुए सफल प्रयोगों से इनपुट लेकर बनाया  व लागू  किया गया जिससे शीघ्र ही नतीजे भी मिलने लगे और एक समय ऐसा आया जब  इंदौर में चाकूबाजी तक़रीबन थम सी गयी थी।  यानी   तकरीबन दो  माह तक एक भी चाक़ूबाज़ी  का मामला नहीं हुआ।  

साल 2019 की शुरुआत होते होते वापस चाक़ूबाज़ी  जैसे जघन्य अपराध ने सर  उठाना शुरू कर दिया, कारण  स्वाभाविक से हो सकते हैं  क्यूकी  चुनाव निपटाने  के बाद जैसे ही पुलिस और प्रशासन  संभले,  नयी सरकार  ने थोक तबादले कर दिए ,  हर स्तर पर किये गए तबादलों से  चेन की कड़िया थोड़ी  बिखर गयीं साथ ही नए आये हुए अधिकारीयों को समझने के लिए बहुत कुछ था , नए सहकर्मीय जो खुद भी स्थांतरिक  हो कर आएं  हैं , नया  शहर , रूप बदलचुके अपराध इत्यादि।  

किसी भी समस्या  से दूर खड़े होकर ऊँगली उठाना बहुत आसान है बनिस्पत खुद कोई हल निकलना , हमें  भी ये  भलीभांति ज्ञात है की शहर की पूरी पुलिस टीम अपनी एड़ी चोटी का ज़ोर लगा रही है अपराधों पर लगाम लगाने के लिए , इसी क्रम में यदि हमारे द्वारा  इनपुट की सूरत में छोटे  योगदान से कोई मदद मिल सकती है तो संविधान का चौथा स्तम्ब होने के अपने कर्त्तव्य को हम निर्वाह संमझेंगे।  

चाकूबाजी पर लिखने से पहले हमने कुछ वरिष्ट मनोचिकित्सक , अपराध विशेषज्ञ , कुछ सेवानिवृत आईपीएस अफसर जिन्होंने चाकूबाजी पर सफल प्रयोग करे , विभिन्न प्रदेशों के  कुछ अन्य वरिष्ठ अफसर जिंहोने इस अपराध को करीब से देखा और समझा से भी उनके द्वारा किये गए प्रयोगों को समझने की कोशिश की अतः उन सभी जानकारियों के आधार पर बिन्दुबद्ध तरीके से महत्वपूर्ण अंश लिखें  हैं :

 

क्या है चाकूबाजी ? 

एक घिनौना अपराध जहाँ आसानी से उपलब्ध चाकू को लेकर अपराधी बेदर्दी से छोटी से छोटी बात पर लोगों पर हमला कर उन्हें गंभीर घायल और कुछ मामलों तो  मौत के घाट तक  उतार देते है।  ये अपराध मध्य प्रदेश के इंदौर शहर के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार के भी कई छोटे  बड़े शहरों में आम है।  

एक मानसिक बीमारी – डॉ श्रीकांत रेड्डी : वरिष्ठ मनोचिकित्सक

इंदौर के डॉ रेड्डी एक विख्यात  मनोचिकित्सक व नशामुक्ति पर काम करने वाले समाजसुधारक भी हैं , उनके मुताबिक चाकूबाज दो प्रकार की मनोदशा से ग्रसित होते हैं :

1 ) ASPD : Antisocial personality Disorder 

2) ड्रग या अन्य आदतन  नशाखोर 

1 ) ASPD : Antisocial personality Disorder  : इस स्तिथि में मरीज़ को दूसरे को होने वाले दुःख या दर्द से कोई वास्ता नहीं होता , न ही वो ये समझ पाता  है की उसके द्वारा किये जाने वाले कृत्य से समाज को या अन्य जनों को क्या नुकसान हो सकता है।

ऐसे मरीज़ अक्सर बहुत ही आक्रामक होते है और छोटी छोटी बातों पर हिंसा कर देते हैं , सीरियल किलर्स भी अक्सर इसी मानसिक बीमारी से पीड़ित रहते है , हालाँकि ज़्यादतर चाक़ूबाज़ी  के मामलों की पड़ताल में एएसपीडी सिंड्रोम के काम ही मरीज़ मिलें है, ये मरीज़ वो लोग होते है जो बिना किसी विशेष कारण  चाकू चला देते हैं ।

इस बीमारी का कोई औषधिक उपचार नहीं है किन्तु इसे काउन्सलिंग से थोड़ा सुधारा जा सकता है।

2 ) आदतन नशाखोर : आदतन नशाखोर अक्सर खतरनाक नशे जैसे ब्राउन शुगर , गांजा , प्रतिबंधित दवाएं अदि का लम्बे समय तक सेवन करते है जिसे उनके मस्तिष्क का डोपामाइन सिस्टम प्रभावित होता है व ऐसे लोगो सही या गलत का फैसला नहीं ले पते जिसे ‘impaired judgement’ भी कहते है।

साथ ही जैसे ही लिए जाने वाले नशे इनके मस्तिष्क से उतरने लगते हैं तो इनके मस्तिष्क के ‘न्यूरॉन्स रिसेप्टर्स ‘ वापस नशे के लिए इन्हे ‘तलब’ लगातें हैं इसीलिए ये किसी भी कीमत पर उस नशे को हासिल करने के लिए आतुर हो जातें है और सबसे आसानी से मिलने वाले हथियार चाकू से लोगों पर वर कर उनसे लूट करते हैं , चाक़ूबाज़ी  के अधिकतर अपराधी इसी श्रेणी के होते हैं।

देशभर में हुए विभिन्न प्रयोगों में से ऐसे चार मुख्य  बिंदु निकल कर आये  जो तक़रीबन अधिकतर शहरों में चाक़ूबाज़ी  को काबू करने में सफल रहे :

1 ) कानून व्यवस्था बनाने के लिए थोड़ी अदला बदली  – धरा 324 की जगह 327

अक्सर चाकूबाजी के मामले  आईपीसी 324 में दर्ज किये जाते  जो किसी धारदार हथियार से हमला कर घायल करने की स्तिथि में लगायी जाती है जिसमे  अग्रिम ज़मानत मिलने के प्रावधान के साथ अधिकतम सजा तीन साल  होती है।

वहीँ यदि मामला आईपीसी  327 में दर्ज किया जाए तो अग्रिम ज़मानत का कोई प्रावधान नहीं साथ ही सजा 10 वर्ष तक हो सकती है , हालाँकि धारा  का किताबी उपयोग तब किया जाता है जब चाकूबाजी यदि पैसे या किसी कीमती वस्तु , संपत्ति अदि को हथियाने के लिए किया जाये लेकिन अगर इस ‘बीमारी’ से सख्ती से निपटना हो तो थोड़ा सा फेर कोई बुरा नहीं है।

ये प्रयोग भी कई जगह सफल हुआ जिसने चाकूबाजी पर नकेल  कसी।

2 ) नशे पर हमला , अहातों की तलाशी 

चाक़ूबाज़ी  जैसे अपराध में सबसे ज्याद मामले नशे से जुड़े हुए है , अक्सर ब्राउन शुगर, गांजा , प्रतिबंधित दवाये इत्यादि के नशे में अपराधी चाकूबाजी की घटनाओं को अंजाम देते है , इसीलिए इस सफल प्रयोग में नशे के पूरे नेटवर्क को क्रैकडाउन करने के साथ ही शराब के अहातों में सघन तलाशी ली जाती थी जिसमे पीने  आये  हर व्यक्ति की चेकिंग करके चाकू या अन्य हथियार पकडे जाते।

इन अभियानों में एसपी के साथ साथ डीएसपी , थानाधिआरी खुद मौके पर पहुंचके अपने सामने सभी अहातों में सघन  चेकिंग करवाते थे, हालाँकि शराबी शराब पीना तो नहीं छोड़ते  किन्तु हथियार लाना ज़रूर छोड़ देते ।

3 ) चाक़ूबाज़ों पर ‘निजी पलटवार’

ये प्रयोग उत्तर प्रदेश के कुछ ज़िलों के साथ इंदौर में भी सफलता पूर्वक  हो चूका है जिसमे चाक़ूबाज़ों के परिवार पर ज़बरदस्त दबाव बनाया जाता था , इंदौर में अकेले ही अपराधियों के 256 माकन तोड़े गए जिसमें अकेले चाक़ूबाज़ों के 50 से अधिक घर थे।  ऐसा करने से उनके घरवाले खुद चाक़ूबाज़ों को पकड़वाने अथवा समझाने में पुलिस की सहायता करते थे व अपने माकन टूटता देख धुरंदर से धुरंदर चाकूबाज ढीला पड़  जाता था।

4 ) चाकूबाजी की डाटा मैपिंग व मॉनिटरिंग 

अक्सर 324 में दर्ज किये हुए मामलों का अलग से रिकॉर्ड नहीं रखा जाता वहीँ इस प्रयोग में  327 में दर्ज किये हुए मामलों का थानावार अलग से रिकॉर्ड रख अपराधियों और अपराध की डाटा मैपिंग की गयी।

मैपिंग से उन चाक़ूबाज़ों को चिन्हित किया गया जो बार बार घटना को किसी विशेष क्षेत्र में अंजाम देते है , साथ ही डीएसआर की कठोर समीक्षा एसपी स्तर  पर की गयी जिसमे यदि एक थाने  में किसी दिन चाक़ूबाज़ी  की घटना हो जाए तो  थानाधिकारी  को तब तक चैन से नहीं बैठने दिया जाता जब तक को वह उस पर संतुष्टि जनक कायर्वाही तुरंत प्रभाव से न करे साथ ही यदि उस के थाना क्षेत्र में यदि 48 घंटे के अंदर फिर अगर कोई चाकूबाजी हो तो  थानाधिकारी का जवाब देना मुश्किल हो जाता।

इसके साथ कई  प्रदेशों में आदतन चाक़ूबाज़ों पर थोक में जिलाबदर की कार्यवाही के साथ एनएसए की कार्यवाही भी की गयी जिससे भी इस अपराध को रोकने में सफलता हासिल हुई।

उक्त मुख्या बिंदुओं के साथ कई छोटे बड़े प्रयोग भी देश के अलग अलग शहरों में किये गए जो चाकूबाजी में बीमारी से ग्रसित थे जैसे की चाक़ूबाज़ों की स्पेशल रिमांड , आदतन चाक़ूबाज़ों की 24 घंटे  सर्विलांस इत्यादि ।

इसमें कोई दो राय  नहीं है की ऐसे जटिल और आसानी से किये जा सकने वाले अपराध पर काबू पाना आसान नहीं है  और न ही ये कहना की प्रयाप्त प्रयास नहीं है  लेकिन कभी कभी कुछ तरकीबें वो काम कर जाती हैं जो काम ताकत नहीं कर पाती है।

ज़रूरत है तो सिर्फ मंथन कर ऐसे रास्तों को खोजने की जो मंज़िल तक जल्दी ले जा सकें क्युकी हर दिन की देरी को जान की कीमत देकर चुकाना बहुत मुश्किल है।

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