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लड़ाई जाति के साथ साथ जेंडर की भी है, बात संस्कारों की नहीं सामंती सोच की है।

सोशल मीडिया विधायक जी की बेटी को लेकर बौरा गया। हर दूसरा पोस्ट बेटी की नज़र पेश है।

मैं बाप के साथ भी हूँ और बेटी के साथ भी और बेटी को माँ-बहन की गाली देने वालों के साथ भी। क्योंकि न इसमें गलती बाप की है, न बेटी की, न गालीबाजों की और न ही मेरी। क्योंकि हम सब वही कर रहे हैं जो एक पुरुषवादी समाज में होता है। हम सब इसी पेट्रीआर्की में पले बढ़े है। पेट्रीआर्की हमारी नसों में लहू बनकर दौड़ती है।

पिता के साथ इसलिए हूँ क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज में भागी हुई लड़की का बाप होना किसी अभिशाप से कम नहीं है। खुद से ओढ़ी गई शर्म और अपमान की चादर के साथ साथ दूसरों के ताने और व्यंग भी आते हैं उसके हिस्से। समाज हिकारत की नज़र से देखने लगता है उसे। और देखे भी क्यों न? वह भी तो किसी और भागी हुई लड़की के बाप को इसी नज़र से देखता है। क्योंकि हमें इसी की ट्रेनिंग मिली है। ट्रोल करने की। यह हमारे मर्द बनने की सामाजिक प्रक्रिया का हिस्सा है और इन सब से ऊपर है उसके पुरुष होने का अभिमान। और इसी अभिमान को स्वभिमान के साथ जोड़कर मरने और मारने की कला में हम माहिर है। फिर चाहे बात गर्भ की हो य गाँव, गलियों, घरों की। य तो बेटियाँ मार दी जाती हैं या बाप आत्महत्या कर लेता है। मगर बगावत नहीं करता समाज से, खुद से। क्योंकि क्रांति सिर्फ किताबों में शोभती है।

बेटी तो कानून, कुदरत और फ़ितरत तीनों के हिसाब से सही है। फ़ितरत इश्क़ की। गालीबाजों की रगों में भी वही पेट्रीआर्की का खून शोला बन कर दौड़ रहा होता है, जिनके लिए स्त्रियां कोई सजीव और स्वतंत्र अस्तित्व न होकर पुरुषों के मातहत होती है य फिर कोई चीज, जो उन्हें पसंद है अपने प्राणों से भी ज्यादा, जो उनकी जागीर है। तो उसका खुद से कोई फैसला लेना तो इन्हें चुभना ही था और विरोध के लिए आज के युवाओं के पास गाली से कूल भाषा कुछ नहीं है। गालियाँ पाथ ब्रेकिंग होती हैं। घोर रूप से लिंगभेदी होते हुए भी इसने स्वीकार्यता में लिंगभेद को समाप्त कर दिया है। यह दोनो जेंडर में समान रूप से पॉपुलर हो रही है। तो आप गालीबाजों को भी गलत नहीं ठहरा सकते। वे भी अपनी जगह सही है।

फिर सवाल उठता है कि गलत कौन है? इसमें इंडिविजुअल रूप से किसी की गलती नहीं है। यह एक सिस्टम है, इसमें जिसे जो काम दिया गया है वह लगभग वैसा ही कर रहा है। अब सवाल उठता है कि समाधान क्या है? समाधान के सवाल पर आने से पहले में संस्कृति के सवाल से टकराना चाहता हूँ।

पेट्रीआर्की की रक्षा के लिए संस्कृति और संस्कारों की बात की जाती हैं। मगर भारतीय संस्कृति प्रेम विवाह और अंतरजातीय विवाह के प्रसंगों से भरी पड़ी है। ये सब इतना सामान्य था कि इसे इतिहास में किसी क्रांति की तरह दर्ज भी नहीं किया गया। अर्जुन श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा को भगाकर ले गए थे। श्री कृष्ण ने उनकी मदद की थी। पृथ्वीराज चौहान भी संयोगिता को भागकर ले गए थे। जिसे क्षत्रिय शान से बताते है। इसलिए कह रहा हूँ कि बात संस्कृति य संस्कारों की नहीं सामन्ती सोच की है।

साक्षी की लड़ाई इसलिए भी कठिन है क्योंकि यह जाति और जेंडर दोनों के मोर्चों पर लड़ी जा रही है। जो लोग जाति के सवाल को बड़ा कर रहे है वे वही है जो पेट्रीआर्की की गोद में पले है और उसे अक्षुण्य बनाए रखने के लिए जेंडर के सवाल से टकराना नहीं चाहते।

अब आते है समाधान पर। जाति की समस्या का समाधान तो इश्क़ में भागी हुई लड़कियाँ हो सकता है मगर जेंडर की लड़ाई का नहीं। कितने ही महान दलित नायकों पर उनकी पत्नियों ने उत्पीड़न, शोषण और उपेक्षा के आरोप लगाए हैं। किसी ने सही ही कहा है स्त्रियों से बड़ा दलित कोई नहीं होता।

भागी हुई लड़कियों की पाँच दस साल बाद की ज़िन्दगी पर कोई रिपोर्ट नहीं हैं। मगर क्राइम के कॉलम में प्रेमी से दारूबाज बने पति से पिटती हुईं लड़कियाँ होती हैं। वेश्यालय में बेच दिए जाने की, उसका mms बनाने, और दोस्तों के साथ गैंगरेप करवाने की खबरें होती हैं। इस मामले में भागी हुई लड़कियाँ कोई खास क्राँति नहीं लातीं यदि वे वहाँ ठहर जाती हैं। वे एक कैद से निकलकर दूसरी कैद में चली जाती हैं। घर से नरक की क़ैद में।

“तुम जो पत्नियों को अलग रखते हो वेश्याओं से
और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो पत्नियों से
कितना आतंकित होते हो जब स्त्री बेखौफ भटकती हैं
ढूंढती हुई अपना व्यक्तित्व एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों और प्रमिकाओं में” (आलोक धन्वा, भागी हुई लड़कियाँ )

इस लड़ाई की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इसके योद्धा भी उसी समाज में ट्रेंड होते है, जिसके खिलाफ वो लड़ते है। इतनी क्रांतिकारी कविता लिखने वाला शख्स भी अपनी पत्नी के साथ वही सब करता है जिसका इल्ज़ाम वह अपनी कविता पर पुरुषों पर लगा रहा है। तो क्या किया जाए? इसका जवाब भी कुछ कुछ आलोक धन्वा की कविता में मिलता है

“तुम्हारे उस टैंक जैसे बंद और मजबूत
घर से बाहर
लड़कियां काफी बदल चुकी हैं
मैं तुम्हें यह इजाजत नहीं दूंगा
कि तुम उसकी सम्भावना की भी तस्करी करो

वह कहीं भी हो सकती है
गिर सकती है
बिखर सकती है
लेकिन वह खुद शामिल होगी सब में
गलतियां भी खुद ही करेगी
सब कुछ देखेगी शुरू से अंत तक
अपना अंत भी देखती हुई जाएगी
किसी दूसरे की मृत्यु नहीं मरेगी”

रूपल  शुक्ला

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