संवेदना खोती पुलिस, नेता तो पहले ही खो चुके है
क्या हो गया है हमारे देश के सामाजिक ढांचे को किस दिशा में जा रहा है समाज कैसी सोच लिए जी रहे है हम भारतीय समाज की सोच इतनी दोगली हो जाएगी हमारे पूर्वजों ने सपने में भी नही सोचा होगा हर व्यक्ति आत्म मुग्ध हो रहा है खुद से परे देखना ही नही चाहता प्रजातंत्र का तो पजामा बना के रख ही दिया है हमने
जैसे कोई मदारी चौराहे पर मजमा लगा कर अपने जमूरे से मन चाहे उत्तर प्राप्त करता है वो ही हाल हमने प्रजातंत्र का कर दिया हमे सिर्फ मनोरंजन से वास्ता बाकी देश जाए भाड़ में यही मूर्ख सोच हर जगह व्याप्त हो गई है स्वार्थ में राजनेता सरकारी अफसर आकंठ डूब चुके है दुनिया तबाह हो जाय मेरा नुकसान नही होना चाहिए चाहे मुझे सौ बेगुनाह मासूम मो की बलि देना पड़े अभी ऐसे कई वाक़ये देखने सुनने को मिले जिससे इस बात को बल मिलता है।
कुछ दिन पूर्व शहर के एक थाने में एक संदिग्ध की पूछताछ के दौरान मौत हो जाती है यह घटना निःसंदेश दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन किसी ने ये सोचा कि वे पुलिस वाले अपना निजी काम तो नही कर रहे थे काम करते समय ऐसी दुःखद घटनाएं हो जाती है उसके बाद उस दिवंगत आत्मा को ले कर राजनीति शुरू हो जाती है सारे राजनीतिक दलों का प्रेम उमड़ पड़ता है केंद्र व राज्य के प्रतिनिधि अपने घड़ियाली आंसू लिए प्रगट हो जाते है उन्ही के बनाये सिस्टम को कोसते है चंद रुपये से उस परिवार का घाव भरने की कोशिश करते है मेरे भाई ये ध्यान हर गरीब का समाज का रख लेते तो ये नोबत नही आती आम नागरिक लाचार है बेरोजगार है करे तो क्या करे और वे पुलिस जन जो जनता के लिए रात दिन काम करते है ,उनको दबाव दे कर तत्काल निलंबित कर दिया जाता है उनके साथ साथ उनका परिवार भी सड़क पे क्यो क्या वे समाज का हिस्सा नही है आसमान से टपके एलियन है वे क्यो उनके बारे में भी नही सोचा जाता पुलिस के सीनियर अपनी चमड़ी बचाने के चक्कर मे मातहतों की बलि लेने में जरा नही हिचकते है।
कैसे कोई काम करे एक जवान गिड़गिड़ा कर अपनी बच्ची की जिंदगी के लिए अफसर के आगे हाथ फैलाता है लेकिन कोई सुनवाई नही मजबूरी में उसे अपनी बीमार बच्ची को छोड़ सैकड़ो किलोमीटर दूर नोकारी करने जाना पड़ता है जैसे उसके बगैर चुनाव होता ही नही और इधर उसकी लाडली काल का ग्रास बन जाती है एक अधेड़ बीमार सहायक उपनिरीक्षक को भेज दिया जाता है जो लाश बन वापस आता है कहा गई हमारी संवेदनाएं कोई नेता कोई अफसर एक शब्द नही बोलता न शोक जाहिर करता है क्या पुलिस के निचले कर्मचारी समाज का हिस्सा नही है समाज के ढेकेदारो आपको सोचना होगा पुलिस के सीनियरों को अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर आकर सोचना होगा अगर ये ही हाल रहा तो वो दिन दूर नही की आपका भी नंबर लगे उनको चाहिए विभाग के लिए कुछ करे सिर्फ मीडिया में गैर पोलिसिसिंग कर छपने से कुछ नही होगा अपनी जवाबदेही समझे किसी की कठपुतली ना बने।
सही सेनापति वो ही होता है जिसका सीना अपने सिपाई का दर्द महसूस करता है।
अमित सिंह परिहार