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भारत के आईने में राष्टवाद की राजनीति।

Roopal Shukla

एक बार फिर कांग्रेस चखना, भजिया के साथ बैठेगी, अपनी हार की समीक्षा के लिए। इस समय देश में कांग्रेस दो ही काम कर रही है। एक हार की समीक्षा का और दूसरा समीक्षा के बाद उससे भी बुरी तरह से हारने का।

इतनी सारी समीक्षा और हार से हताश हुए बगैर राहुल गाँधी बिना स्पेन, थाईलैंड गए यहाँ इंडिया में ही अकेले जल्दी से समीक्षा में बैठे और लौटकर कमलनाथ और गहलोत जैसे नेताओं के पुत्रप्रेम और परिवारवाद को कांग्रेस की हार का जिम्मेदार ठहराते हुए जमकर गरियाया। राहुल गाँधी की एक खासियत है, उनके बारे में जो बातें चलती हैं, जो चुटकुले बनते हैं राहुल गाँधी उन्हें सच कर देते हैं। मगर इन सब में मध्यप्रदेश के कांग्रेसियों के साथ फिर चोट हो गई। अब न वे अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष पर हँस सकते हैं और न ही अपने मुख्यमंत्री को गरिया सकते हैं, इसलिए वे लोग मीडिया को, जनता को, evm को गरियाकर अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं।

हार जीत तो लगी रहती है उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। मगर कांग्रेस हारी नहीं हैं उसकी मट्टी पलीत हुई है। छीछालेदर हो गई है। कांग्रेस की इस दुर्गत में बुद्धिजीवियों का भी बहुत बड़ा योगदान हैं। जो मीडिया मोदी के चरण चूमकर अपनी वफादारी निभा रहा था, उसे छोड़ भी दिया जाए तब भी बाकी के मीडिया की रिपोर्टिंग में लोग बता रहे थे कि नोटबन्दी ने उन्हें बर्बाद कर दिया, gst में व्यापार तबाह हो गया। खेती का संकट भी और गहरा गया है। रोजगार, सड़क, पानी की समस्या भी गंभीर है। आम आदमी बुरी तरह परेशान था मगर वह कह रहा था कि वो अपना वोट मोदी को ही देगा। क्योंकि इस बार का चुनाव इन सब चीजों के लिए नहीं देश के लिए है, राष्ट्र के लिए है। ये अलग मसला है कि राष्ट्रवाद को लेकर उसे भ्रम में रखा गया है।

मगर फिर भी अपने निजी स्वार्थो से ऊपर उठकर निःस्वार्थ भाव से कुछ करने का ये जो भाव है ना, यही वह राष्ट्रवाद है जो इस देश के मूल में है। इतनी विविधता वाले इस देश में यही वो चीज है जो हमें एक सूत्र में बांधे रखती है। इसी राष्ट्रवाद के चलते भारत में हिंदुत्व का नायाब प्रयोग हुआ, जिसमें सभी, धर्म, संस्कृति और विचारों को समाहित कर लिया गया। और इस तरह हिन्दू धर्म ने सभी को मिलाकर एक नई संस्कृति की नींव डाली।

इसी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर घोर आस्था ने इस देश को बांधे रखा। जब हम इससे दूर गए तो पाकिस्तान, खालिस्तान, द्रविड़, आदिवासी, हिंदी, तमिल, जैसे अलगाववाद की चपेट में आ गए। संविधान अपेक्षाकृत बहुत नई चीज है, और वह कोई ऐसी चीज नहीं जो टूटन को थाम सके। संविधान के रहते ही कई देश टूटे हैं और कई टूटने की कगार पर हैं। संविधान का अपना अलग महत्व है मगर वह संस्कृति की जगह नहीं ले सकता या ऐसा करने में उसे अभी बहुत वक़्त लगेगा।

बुद्धिजीवियों ने राष्ट्रवाद का कॉन्सेप्ट यूरोप से उठाया और उसे आरएसएस के राष्ट्रवाद से मिलाते हुए, राष्ट्रवाद को 19 वी सदी का कचरा, काँच का टुकड़ा, और भी ना जाने क्या क्या नकारात्मक कहा। जबकि भारत का राष्ट्रवाद न हिटलर का राष्ट्रवाद है, न मुसोलिनी का और न ही आरएसएस का राष्ट्रवाद है। भारत का राष्ट्रवाद इंक्लूसिव है, यही इसकी एक्सक्लुसिव बात है। संघ और बुद्धिजीवियों के टकराव के कारण इसे लेकर फैले भ्रम के चलते यह क्षीण जरूर हुआ है, पर अब भी यह हिंदुस्तान की आत्मा में बसता है। जो अब एक्ट में भले रिफ्लेक्ट न हो पर भावनाओं में प्रबल है। हालांकि इसके कुछ खतरे भी हैं, पर इसके चलते राष्ट्रवाद से ही किनारा कर लेना अपेक्षाकृत कही बहुत अधिक खतरनाक है।

चूंकि इस बार का चुनाव राष्ट्रवाद पर था लोगों ने अपने कष्ट को भूलाकर राष्ट्र के लिए बीजेपी को वोट दिया है, इसलिए बीजेपी को चाहिए कि राष्ट्रवाद को लेकर वह जनता के भरोसे को न तोड़े और उसकी किसी हरकत से राष्ट्रवाद बदनाम न हो और बुद्धिजीवियों को चाहिए कि वे राष्ट्रवाद की अवधारणा को भारत की नजर से देखें न कि यूरोप के नजरिये से।

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