आख़िर.. कब तक
*आख़िर.. कब तक*
इक दो दिन का हंगामा होगा
फिर ख़ामोशी की चादर होगी
उम्मीदों का नया सौदा होगा
लंबी चौड़ी बातों की नुमाइश होगी
जो हुए रुख़सत उन्हें यकीनन तकलीफ़ होगी
तमाशा देखने वालों की ज़िन्दगी फिर पटरी पर होगी
मुक़दमा इंसानियत पर मुर्दों की कचहरी होगी
क्या बवाल क्या सवाल इस पर भी बहस होगी
हमारे बस में बस कैंडल मार्च का ज़िम्मा होगा
जो गए उनके घर हर एक की आंखें नम होगी
उनके आंगन में अब ना पहले सी होली होगी
दीवाली पर रोशन शहर और दिलों में अंधेरा होगा
गांव की सड़कों पर न पुरानी चहल पहल होगी
घर के दीवारों कि मरम्मत अब जाने कब होगी
शहीद सिपाही की बेवा का सांस लेना भी ज़ुल्म होगा
टीवी के डिब्बों में क्रांति की लहर होगी
अगले हादसे तक खबरों की हेरा फेरी होगी
दो पल ठहर जाएगा वक्त वापस वही रफ़्तार होगी
कब यकीन की बातों में मीठा ज़हर नहीं सच्चाई होगी
कब सहम सहम कर जीने की आदत बंद होगी
कब जाने रूह को डराने वाले हादसों का थमना होगा
कब जाने सुकून ख़्वाब नहीं वाकई हकीक़त होगा
कब सरहद के लकीरों पर लोगों का बेख़ौफ़ रहना होगा
कब जवानों के सीने में गोली नहीं मेहबूब का सर होगा
कब मज़हबी क़ौमी कत्ल का सिलसिला ख़त्म होगा
कब बरदाश्त करने की इंतहा की हद होगी
कब तक खून का समंदर कतरा कतरा पानी होगा
कब नज़रों में शर्मिंदगी नहीं फक्र का एलान होगा
कब खौलेगा खून इतना कि रवैए में इनक़लाब होगा
कब इंसान कि इंसान से फिर मुलाक़ात होगी
*#pulwama attacks*
Sansruti Sahu